गौओं की जननी आदि गौ सुरभी और भगवान श्रीकृष्ण की गो-सेवा



                        गौओं की जननी आदि गौ सुरभी और भगवान श्रीकृष्ण की गो-सेवा



हरे हरे तिनकों पर अमृत-घट छलकाती गौ माता,
जब-जब कृष्ण बजाते मुरली लाड़ लड़ाती गौ माता।
तुम्ही धर्म हो, तुम्ही सत्य हो, पृथ्वी-सा सब सहती हो,
मोक्ष न चाहे ऐसे बंधन में बँधकर तुम रहती हो।
प्यासे जग में सदा दूध की नदी बहाती गौ माता,
जब-जब कृष्ण बजाते मुरली लाड़ लड़ाती गौ माता।। (डा. श्रीमहेन्द्रजी मधुकर)
गाय गोलोक की एक अमूल्य निधि है, जिसकी रचना भगवान ने मनुष्यों के कल्याणार्थ आशीर्वाद रूप से की है। अत: इस पृथ्वी पर गोमाता मनुष्यों के लिए भगवान का प्रसाद है। भगवान के प्रसादस्वरूप अमृतरूपी गोदुग्ध का पान कर मानव ही नहीं अपितु देवगण भी तृप्त होते हैं। इसीलिए गोदुग्ध को ‘अमृत’ कहा जाता है। गौएं विकाररहित दिव्य अमृत धारण करती हैं और दुहने पर अमृत ही देती हैं। वे अमृत का खजाना हैं। सभी देवता गोमाता के अमृतरूपी गोदुग्ध का पान करने के लिए गोमाता के शरीर में सदैव निवास करते हैं। ऋग्वेद में गौ को ‘अदिति’ कहा गया है। ‘दिति’ नाम नाश का है और ‘अदिति’ अविनाशी अमृतत्व का नाम है। अत: गौ को ‘अदिति’ कहकर वेद ने अमृतत्व का प्रतीक बतलाया है।

गौओं की जननी, सम्पूर्ण गौओं की बीजस्वरूपा आदि गौ सुरभी का प्राकट्य

एक बार भगवान श्रीकृष्ण गोलोक में श्रीराधा व गोपियों के साथ वृन्दावन में विहार कर रहे थे। सहसा परम कौतुकी
राधिकापति भगवान श्रीकृष्ण के मन में दूध पीने की इच्छा होने लगी। तब भगवान ने अपने वामभाग से लीलापूर्वक ‘सुरभी’ गौ को प्रकट किया। उसके साथ बछड़ा भी था जिसका नाम ‘मनोरथ’ था। उस सवत्सा गौ को सामने देख श्रीकृष्ण के पार्षद सुदामा ने एक रत्नमय पात्र में उसका दूध दुहा और उस सुरभी से दुहे गये गर्म-गर्म स्वादिष्ट दूध को स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने पीया। मृत्यु तथा बुढ़ापा को हरने वाला वह दुग्ध अमृत से भी बढ़कर था। सहसा दूध का वह पात्र हाथ से छूटकर गिर पड़ा और पृथ्वी पर सारा दूध फैल गया। उस दूध से वहां एक सरोवर बन गया जिसकी लम्बाई-चौड़ाई सब ओर से सौ-सौ योजन थी। गोलोक में वह सरोवर ‘क्षीरसरोवर’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। गोपिकाओं और श्रीराधा के लिए वह क्रीडा-सरोवर बन गया। उस क्रीडा-सरोवर के घाट दिव्य रत्नों द्वारा निर्मित थे। भगवान की इच्छा से उसी समय असंख्य कामधेनु गौएं प्रकट हो गयीं। जितनी वे गौएं थीं, उतने ही बछड़े भी उस सुरभी गौ के रोमकूप से निकल आए। इस प्रकार उन सुरभी गौ से ही गौओं की सृष्टि मानी गयी है।
स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने सुरभि गौ की पूजा की। इनकी पूजा का मन्त्र है–’ऊँ सुरभ्यै नम:’। यह षडक्षर मन्त्र एक लाख जप करने पर सिद्ध हो जाता है और साधक को ऋद्धि, वृद्धि, मुक्ति देने के साथ ही उनकी समस्त मनोकामनाओं को पूरा करने वाला कल्पवृक्ष है। लक्ष्मीस्वरूपा, राधा की सहचरी, गौओं की आदि जननी सुरभी गौ की पूजा दीपावली के दूसरे दिन पूर्वाह्नकाल में की जाती है। कलश, गाय के मस्तक, गौओं के बांधने के खम्भे, शालग्राम, जल अथवा अग्नि में सुरभी की भावना (ध्यान) करके इनकी पूजा कर सकते हैं।
एक बार वाराहकल्प में आदि गौ सुरभी ने दूध देना बंद कर दिया। उस समय तीनों लोकों में दूध का अभाव हो गया जिससे समस्त देवता चिन्तित हो गए। तब सभी देवताओं ने ब्रह्माजी से प्रार्थना की। ब्रह्माजी की आज्ञा से इन्द्र ने आदि गौ सुरभी की स्तुति की–
नमो देव्यै महादेव्यै सुरभ्यै च नमो नम:।
गवां बीजस्वरूपायै नमस्ते जगदम्बिके।।
नमो राधाप्रियायै च पद्मांशायै नमो नम:।
नम: कृष्णप्रियायै च गवां मात्रे नमो नम:।।
कल्पवृक्षस्वरूपायै सर्वेषां सततं परे।
श्रीदायै धनदायै बुद्धिदायै नमो नम:।।
शुभदायै प्रसन्नायै गोप्रदायै नमो नम:।
यशोदायै कीर्तिदायै धर्मदायै नमो नम:।। (देवीभागवत ९।४९।२४-२७)
अर्थात्–देवी एवं महादेवी सुरभी को नमस्कार है। जगदम्बिके ! तुम गौओं की बीजस्वरूपा हो, तुम्हे नमस्कार है। तुम श्रीराधा को प्रिय हो, तुम्हें नमस्कार है। तुम लक्ष्मी की अंशभूता हो, तुम्हे बारम्बार नमस्कार है। श्रीकृष्णप्रिया को नमस्कार है। गौओं की माता को बार-बार नमस्कार है। जो सबके लिए कल्पवृक्षस्वरूपा तथा श्री, धन और वृद्धि प्रदान करने वाली हैं, उन भगवती सुरभी को बार-बार नमस्कार है। शुभदा, प्रसन्ना और गोप्रदायिनी सुरभी को बार-बार नमस्कार है। यश और कीर्ति प्रदान करने वाली धर्मज्ञा देवी को बार-बार नमस्कार है।
इस स्तुति से आदि गौ सुरभि प्रसन्न हो गईं। फिर तो सारा विश्व दूध से परिपूर्ण हो गया। दूध से घृत बना और घृत से यज्ञ होने लगे जिससे देवता भी प्रसन्न हो गए।
ललकते सुर भी सुरभी हेतु,
यही है धर्म-शक्ति का केतु।
नन्दिनी-कामधेनु का रूप,
घूमते जिनके पीछे भूप।। (पं. जगमोहननाथ अवस्थी)
एक बार भगवान शंकर से ऋषियों का कुछ अपराध हो गया। ऋषियों ने उन्हें घोर शाप दे डाला। महेश्वर गोलोक में सुरभी की शरण में गए और उन्होंने स्तुति करते हुए कहा–’मां सुरभी ! तुम सृष्टि, स्थिति, विनाश करने वाली, रस से भूतल को आप्यायित करने वाली, विश्व-हेतु और सबको बल-पोषण प्रदान करने वाली, रुद्रों की मां, आदित्यों की बहन, वसुओं की पुत्री और घृतरूप अमृत का खजाना हो। यज्ञभाग वहन करने वाली शक्ति ‘स्वाहा’ और पितरों के लिए पिण्डोदक वहन करने वाली ‘स्वधा’ भी तुम्ही हो। ब्राह्मणों के शाप से मेरा शरीर दग्ध (जला) हुआ जा रहा है, तुम उसे शीतल करो।’
इस प्रकार स्तुति करके शंकरजी सुरभी की देह में प्रवेश कर गए और सुरभी ने उन्हें अपने गर्भ में धारण कर लिया। शिवजी के न होने से त्रिलोकी में हाहाकार मच गया। सभी देवता उन्हें ढूंढ़ते हुए गोलोक पहुंचे वहां उन्हें परम तेजस्वी ‘नीलवृषभ’ दिखाई दिया। भगवान शंकर ही इस वृषभ के रूप में सुरभी से अवतीर्ण हुए थे। तब सभी ऋषियों व देवताओं ने नीलवृषभरुपी शंकरजी की स्तुति करते हुए वर दिया कि मृत प्राणी के एकादशाह के दिन नीलवृषभ को गायों के समूह में छोड़ दिया जाएगा तो वह जगत का कल्याण करता रहेगा। भगवान प्रजापति ने महादेवजी को एक वृषभ प्रदान किया जिसे शंकरजी ने अपना वाहन बनाया और अपनी ध्वजा को उसी वृषभ के चिह्न से सुशोभित किया। इसीलिए उनका नाम वृषभध्वज पड़ा। फिर देवताओं ने महादेवजी को पशुओं का स्वामी (पशुपति) बना दिया। गौओं के बीच में उनका नाम वृषभांक रखा गया।
धर्म का जन्म गाय से है; क्योंकि धर्म वृषभरूप है और गाय के पुत्र को ही वृषभ कहा जाता है। नीलवृषभ के रूप में स्वयं धर्म प्रकट हुए हैं।

भगवान श्रीकृष्ण और उनकी गो-सेवा

गोकुलेश गोविन्द प्रभु, त्रिभुवन के प्रतिपाल।
गो-गोवर्धन-हेतु हरि, आपु बने गोपाल।।
द्वापर में दुइ काज-हित, लियौ प्रभुहि अवतार।
इक गो-सेवा, दूसरौ भूतल कौं उद्धार।। (श्रीराधाकृष्णजी श्रोत्रिय, ‘सांवरा’)
श्रीकृष्णावतार में भगवान श्रीकृष्ण ‘गोपाल’ और ‘गोविन्द’ नाम धारणकर गायों के सेवक व रक्षक बन कर अवतरित हुए।
भगवान श्रीकृष्ण का बाल्यजीवन गो-सेवा में बीता इसीलिए उनका नाम ‘गोपाल’ पड़ा। पूतना के वध के बाद गोपियां श्रीकृष्ण के अंगों पर गोमूत्र, गोरज व गोमय लगा कर शुद्धि करती हैं क्योंकि उन्होंने पूतना के मृत शरीर को छुआ था और गाय की पूंछ को श्रीकृष्ण के चारों ओर घुमाकर उनकी नजर उतारती हैं। तीनों लोकों के कष्ट हरने वाले श्रीकृष्ण के अनिष्ट हरण का काम गाय करती है। जब-जब श्रीकृष्ण पर कोई संकट आया; नन्दबाबा और यशोदामाता ब्राह्मणों को स्वर्ण, वस्त्र व पुष्पमाला से सजी गायों का दान करते थे। यह है गोमाता की महिमा और श्रीकृष्ण के जीवन में उनका महत्व। वे व्रजराजकिशोर व्रज के वनोपवनों में, गिरिराज की मनोरम घाटियों में तथा कालिन्दी के कमनीय कूलों पर नंगे चरणों गोपसमूहों के साथ गौओं के पीछे-पीछे घूमा करते थे। नंदबाबा के घर सैंकड़ों ग्वालबाल सेवक थे पर श्रीकृष्ण गायों को दुहने का काम भी स्वयं करना चाहते थे–
तनक कनक की दोहनी दे री मैया।
तात दुहन सिखवन कह्यौ मोहि धौरी गैया।।


सूरदासजी ने यशोदामाता और लाड़ले कान्हा के आपसी संवादों से गो-महिमा और श्रीकृष्ण की गो-भक्ति का कितना मधुर वर्णन किया है–
आजु मैं गाइ चरावन जैहौं।
बृंदाबन के भांति-भांति फल अपने कर मैं खेहौं।।
ऐसी बात कहौ जनि बारे, देखो अपनी भांति।
तनक-तनक पग चलिहौ कैसैं, आवत ह्वैह्वै राति।।
प्रात जात गैया लै चारन, घर आवत हैं सांझ।
तुम्हरौ कमल-बदन कुम्हिलैहैं, रेंगत घामहिं मांझ।।
तेरी सौं मोहिं घाम न लागत, भूख नहीं कछु नेक।
सूरदास प्रभु कह्यौ न मानत, परयौ आपनी टेक।।
कन्हैया ने आज माता से गाय चराने के लिए जाने की जिद की और कहने लगे कि भूख लगने पर वे वन में तरह-तरह के फलों के वृक्षों से फल तोड़कर खा लेंगें। पर माँ का हृदय इतने छोटे और सुकुमार बालक के सुबह से शाम तक वन में रहने की बात से डर गया और वे कन्हैया को कहने लगीं कि तुम इतने छोटे-छोटे पैरों से सुबह से शाम तक वन में कैसे चलोगे, लौटते समय तुम्हें रात हो जाएगी। तुम्हारा कमल के समान सुकुमार शरीर कड़ी धूप में कुम्हला जाएगा परन्तु कन्हैया के पास तो मां के हर सवाल का जवाब है। वे मां की सौगन्ध खाकर कहते हैं कि न तो मुझे धूप (गर्मी) ही लगती है और न ही भूख और वे मां का कहना न मानकर गोचारण की अपनी हठ पर अड़े रहे।
मोरमुकुटी, वनमाली, पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण यमुना में अपने हाथों से मल-मल कर गायों को स्नान कराते, अपने पीताम्बर से ही गायों का शरीर पौंछते, सहलाते और बछड़ों को गोद में लेकर उनका मुख पुचकारते और पुष्पगुच्छ, गुंजा आदि से उनका श्रृंगार करते। तृण एकत्रकर स्वयं अपने हाथों से उन्हें खिलाते। गायों के पीछे वन-वन वे नित्य नंगे पांव कुश, कंकड़, कण्टक सहते हुए उन्हें चराने जाते थे। गाय तो उनकी आराध्य हैं और आराध्य का अनुगमन पादत्राण (जूते) पहनकर तो होता नहीं।
परमब्रह्म श्रीकृष्ण गायों को चराने के लिए जाते समय अपने हाथ में कोई छड़ी आदि नहीं रखते थे; केवल वंशी लिए हुए ही गायें चराने जाते थे। वे गायों के पीछे-पीछे ही जाते हैं और गायों के पीछे-पीछे ही लौटते हैं, गायों को मुरली सुनाते हैं। सुबह गोसमूह को साष्टांग प्रणिपात (प्रणाम) करते और सायंकाल ‘पांडुरंग’ बन जाते (गायों के खुरों से उड़ी धूल से उनका मुख पीला हो जाता था)। इस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए देवी-देवता अपने लोकों को छोड़कर व्रज में चले आते और आश्चर्यचकित रह जाते कि जो परमब्रह्म श्रीकृष्ण बड़े-बड़े योगियों के समाधि लगाने पर भी ध्यान में नहीं आते, वे ही श्रीकृष्ण गायों के पीछे-पीछे नंगे पांव वनों में हाथ में वंशी लिए घूम रहे हैं। इससे बढ़कर आश्चर्य की बात भला और क्या होगी?
जब वन से गायों के समूह को लेकर लौटते तो उस समय उनकी छवि की शोभा को देखने के लिए यूथ-की-यूथ व्रजांगनाएं मार्ग के दोनों ओर खड़ीं रहतीं और आपस में कहतीं–सखी ! तनिक श्यामसुन्दर की रूपमाधुरी तो देख। मोहन गायें चराकर आ रहे हैं। उनके मस्तक पर नारंगी पगड़ी है जिस पर मयूरपिच्छ का मुकुट लगा है, मुख पर काली-काली अलकें बिखरी हुई हैं जिनमें चम्पा की कलियां सजाई गयीं हैं, उनके नुकीले अरुनारे (आंखों की लालिमायुक्त कोर), चंचल नेत्र हैं, टेढ़ी भौंहें, लाल-लाल अधरों पर खेलती मधुर मुसकान और अनार के दानों जैसी दंतपक्ति, वक्ष:स्थल पर वनमाला और गाय के खुर से उड़कर मुख पर लगी धूल सुहावनी लग रही है। गोपबालकों की मंडली के बीच मेघ के समान श्याम श्रीकृष्ण रसमयी वंशी बजाते हुए चल रहे हैं और सखामंडली उनकी गुणावली गाती चल रही है। गेरु आदि से चित्रित सुन्दर नट के समान वेष में ये नवलकिशोर मस्त गजराज की तरह चलते हुए आ रहे हैं। चलते समय उनकी कमर में करधनी के किंकणी और चरणों के नुपुरों के साथ गायों के गले में बंधी घण्टियों की मधुर ध्वनि–ये सब मिलकर कानों में मानो अमृत घोल रहे हों। इस सांवले, सुकुमार की चितवन में, चन्द्रिका में, मुरली में ऐसी कौन-सी मोहिनी है जो इनको देखते ही सुर, नर, मुनि, खग-मृग सब मोहित हो जाते हैं। हमारा मन भी कभी घर में नहीं लगता–‘जब तैं दृष्टि परे मनमोहन, गृह मेरौ मन न लगौ री। अष्टछाप के कवि नन्ददासजी के शब्दों में–
गोरज राजत साँवरें अंग।
देख सखी बन ते ब्रज आवत गोबिंद गोधन संग।।


भगवान श्रीकृष्ण को केवल गायों से ही नहीं अपितु गोरस (दूध, दही, मक्खन, आदि) से भी अद्भुत प्रेम था, उस प्रेम के कारण ही श्रीकृष्ण गोरस की चोरी भी करते थे। श्रीकृष्ण द्वारा ग्यारह वर्ष की अवस्था में मुष्टिक, चाणूर, कुवलयापीड हाथी और कंस का वध गोरस के अद्भुत चमत्कार के प्रमाण हैं और इसी गोदुग्ध का पानकर भगवान श्रीकृष्ण ने दिव्य गीतारूपी अमृत संसार को दिया।
भगवान श्रीकृष्ण ने गोमाता की रक्षा के लिए क्या-क्या नहीं किया? उन्हें दावानल से बचाया, ब्रह्माजी से छुड़ाकर लाए, गायों के लिए ही कालियह्रद को शुद्ध किया। कालियह्रद का जल पीने से जो गायें मृत्यु को प्राप्त हुईं, उन्हें श्रीकृष्ण ने जीवनदान दिया। इन्द्र के कोप से गायों और व्रजवासियों की रक्षा के लिए गिरिराज गोवर्धन को कनिष्ठिका अंगुली पर उठाया। तब देवराज इन्द्र ने ऐरावत हाथी की सूंड़ के द्वारा लाए गए आकाशगंगा के जल से तथा कामधेनु ने अपने दूध से उनका अभिषेक किया और कहा कि ‘जिस प्रकार देवों के राजा देवेन्द्र हैं, उसी प्रकार आप हमारे राजा ‘गोविन्द’ हैं।
भगवान श्रीकृष्ण ने ही ‘गोधन की सौं’ शपथ प्रचलित कराई। वंशी की ध्वनि से प्रत्येक गाय को नाम ले-लेकर पुकारते थे और वंशी की टेर सुनकर चाहे वे गायें कितनी भी दूर क्यों न हों, दौड़कर उनके पास पहुंच जातीं और चारों ओर से उन्हें घेरकर खड़ी हो जाती हैं–
गोविन्द गिरि चढ़ गाय बुलावत।
गायँ बुलाईं धूमर-धौरी टेरत वेणु बजाय।।
जब श्रीकृष्ण सांदीपनिमुनि के आश्रम में विद्याध्ययन के लिए गए वहां भी उन्होंने गो-सेवा की। उनकी द्वारकालीला में तो स्पष्ट वर्णन है कि 13,084 ऐसी गायों का दान प्रतिदिन द्वारकाधीश श्रीकृष्ण करते थे जो पहले-पहल ब्यायी हुई, दुधार, बछड़ों वाली, सीधी, शान्त होती थीं और जिनके सींग स्वर्णमण्डित, खुर रजतमण्डित, पूंछ में मोती की माला और जवाहरात से पिरोई हुयी रेशमी झूल होती थी। इतना गोदान नित्य करते थे तो भगवान श्रीकृष्ण के पास कितनी गौएं होंगी? इस प्रकार कृष्णावतार में गाय ही प्रधान है।
भक्त बिल्वमंगल ने श्रीकृष्णकर्णामृत ग्रन्थ में कहा है–हे प्रभो ! तुम व्रज की कीच में तो विहार करते हो, पर ब्राह्मणों के यज्ञ में पहुंचने में आपको लज्जा आती है। गायों के व बछड़ों के हुंकार करने पर उनकी हुंकारवाली भाषा को आप समझ लेते हो, बस दौड़े हुए आप उनके पास चले जाते हो और उनको गले से लगा लेते हो। पर जब बड़े-बड़े ज्ञानी स्तुति करते हैं तब आप चुप खड़े रह जाते हो। हे कृष्ण! मैं जान गया, आप और किसी तत्त्व का आदर नहीं करते, तुम तो केवल प्रेम का आदर करते हो। जिसके हृदय में प्रेम है, उसी से तुम रीझ जाते हो।
अष्टछाप के एक अन्य कवि छीतस्वामी ने गोविंद के गो-प्रेम का बहुत ही सुन्दर शब्दों में वर्णन किया है–
आगे गाय पाछे गाय, इत गाय उत गाय,
गोबिंद कों गायन में बसिबोई भावै।
गायन के संग धावै, गायन में सचु पावै,
गायन की खुररेनु अंग लपटावै।।
गायन सों ब्रज छायो, बैकुंठ बिसरायो,
गायन के हेत कर गिरि लै उठावै।
छीतस्वामी गिरधारी बिट्ठलेस बपुधारी
ग्वारिया को भेस धरें गायन में आवै।।

गौ महिमा

इस संसार में ‘गौ’ एक अमूल्य और कल्याणप्रद पशु है। सूर्य भगवान के उदय होने पर उनकी ‘ज्योति’, ‘आयु’ और ‘गो’–ये तीन किरणें स्थावर-जंगम (चराचर) सभी प्राणियों में कम या अधिक मात्रा में प्रविष्ट होती हैं; परन्तु ‘गो’ नाम की किरण गौ-पशु में ही अधिक मात्रा में समाविष्ट होती है इसीलिए इनको ‘गौ’ नाम से पुकारते हैं। ‘गो’ नामक सूर्य किरण की पृथ्वी स्थावरमूर्ति (अचलरूप) और गौ-पशु जंगममूर्ति (चलायमानरूप) है। गौ और पृथ्वी दोनों ही परस्पर एक-दूसरे की सहायिका और सहचरी हैं। मृत्युलोक की आधारशक्ति ‘पृथ्वी’ है और देवलोक की आधारशक्ति ‘गौ’ है। पृथ्वी को ‘भूलोक’ कहते हैं और गौ को ‘गोलोक’ कहते हैं। भूलोक नीचे है और गोलोक ऊपर है। जिस प्रकार मनुष्यों के मल-मूत्रादि कुत्सित आचरणों को पृथ्वीमाता सप्रेम सहन करती है, उसी प्रकार गौमाता भी मनुष्यों के जीवन का आधार होते हुए उनके वाहन, ताड़न आदि कुत्सित आचरणों को सहन करती है। इसीलिए वेदों में पृथ्वी और गौ के लिए ‘मही’ (क्षमाशील) शब्द का प्रयोग किया गया है। मनुष्यों में भी जो सहनशील होते हैं, वे महान माने जाते हैं। संसार में पृथ्वी व गौ से अधिक क्षमावान और कोई नहीं है। शास्त्रों में गौ को सर्वदेवमयी और सर्वतीर्थमयी कहा गया है। इसलिए गौ के दर्शन से समस्त देवताओं के दर्शन और समस्त तीर्थों की यात्रा करने का पुण्य प्राप्त हो जाता है।
समस्त प्राणियों को धारण करने के लिए पृथ्वी गोरूप ही धारण करती है। जब-जब पृथ्वी पर असुरों का भार बढ़ता है, तब-तब वह देवताओं के साथ भगवान विष्णु की शरण में गोरूपधारण करके जाती है। गौ, विप्र, वेद, सती, सत्यवादी, निर्लोभी और दानी–इन सात महाशक्तियों के बल पर ही पृथ्वी टिकी है पर इनमें गौ का ही प्रथम स्थान है।
गो शब्द स्त्रीलिंग और पुल्लिंग दोनों में प्रयुक्त होता है। गाय रूप से विष्णुपत्नी भूदेवी का रूप होने से माता है और गो वृषभ
रूप से धर्म का रूप होने से सबका पिता है। गौ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारो पुरुषार्थों की धात्री होने के कारण कामधेनु है, इसका अनिष्ट चिन्तन ही पराभव (विनाश) का कारण है। शास्त्रों में गाय को प्रत्यक्ष देवी माना है। उनके रोम-रोम में देवताओं का वास है। गोमूत्र में गंगाजी का व गोबर में लक्ष्मीजी का निवास है। भवसागर से पार लगाने वाली गोमाता की सेवा करने से व इनकी कृपा से ही गोलोक की प्राप्ति होती है।
अथर्ववेद, उपनिषदों, महाभारत, रामायण, पुराण व स्मृतियां गोमहिमा से भरे पड़े हैं। गाय को ‘सुरभि’, ‘कामधेनु’, ‘अर्च्या’, ‘यज्ञपदी’, ‘कल्याणी’, ‘इज्या’, ‘बहुला’, ‘कामदुघा’, ‘विश्व की आयु’, ‘रुद्रों की माता’ व ‘वसुओं की पुत्री’ कहा गया है। सर्वदेवमयी गोमाता को वेदों में ‘अघ्न्या’(अवध्या) बतलाया है। श्रुति का वचन है–‘मा गामनागामदितिं वधिष्ट।’ (ऋक्संहिता ८।१०१।१५)।इसका अर्थ है कि गाय निरपराधिनी है, निर्दोष है तथा पीड़ा पहुंचाने योग्य नहीं है और अखण्डनीय है। अत: इसकी किसी भी प्रकार हिंसा न करो, तनिक भी कष्ट न पहुंचाओ। गाय सदा पूजनीय है।
गौ को त्यागमूर्ति कहा गया है; क्योंकि उसके सभी अंग-प्रत्यंग दूसरे के उपयोग में आते हैं। इस महागुण से गौ ‘सर्वोत्तम माता’ कही गयी है। तृणों के आहार पर जीवन धारणकर गाय मानव के लिए अलौकिक अमृतमय दूध प्रदान करती है। गोमाता हमें प्रतिधुक् (ताजा दुग्ध), श्रृत (गरम दुग्ध), शर (मक्खन निकाला हुआ दुग्ध), दही, मट्ठा, घृत, खीस (इन्नर, पनीर, छैना), खीस का पानी (वाजिन, whey water), नवनीत और मक्खन–ये दस प्रकार के अमृतमय भोज्य पदार्थ देती है जिन्हें खाकर हम आरोग्य, बल, बुद्धि, ओज और शारीरिक बल प्राप्त करते हैं। अपने दूध से, पुत्र से और मरने पर अपने चमड़े-हड्डियों से भी सेवा करने वाली और पवित्रता की मूर्ति–गोबर से घर को और गोमूत्र द्वारा शरीर को पवित्र करती है। जगद्गुरु वीरभद्र शिवाचार्यजी महाराज के शब्दों में–
हैं गोमय-गोमूत्र शुद्धतम इनके पावन और पवित्र।
जिनके सेवन से होते हैं दूर भूरि भव-रोग विचित्र।।
अभागा है वह देश व समाज जहां आज उस गोविन्द की गाय को उचित सम्मान व रक्षण नहीं मिल रहा। श्रीरामनारायनदत्तजी शास्त्री के शब्दों में–
गौओं की महिमा कौन भला बतलाये,
जिनके गुण-गौरव वेदों ने भी गाये।।
जिनकी सेवा के हेतु अरे इस जग में,
भगवान स्वयं मानव बनकर थे आए।।
इनके भीतर धन-धान हमारे सोये।
इनके भीतर अरमान हमारे सोये।।
ये कामधेनु हैं क्षीरसमुद्र धरा का,
इनके भीतर भगवान हमारे सोये।।
इस प्रकार वेदों से लेकर समस्त धार्मिक-ग्रन्थों में और प्राचीन ऋषि-मुनियों और विद्वानों से लेकर आधुनिक विद्वानों तक सभी की सम्मति में गोमाता का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। भूमण्डल पर मातृशक्ति का प्रत्यक्ष रूप गोमाता है। महाभारत के अनुशासनपर्व में भीष्मपितामह युधिष्ठिर को ‘गौ की महिमा’ बताते हुए कहते हैं–’गौ सभी सुखों को देने वाली है और वह सभी प्राणियों की माता है।’

यज्ञस्वरूपा गाय

भगवान ने विश्व के पालनार्थ यज्ञपुरुष की प्रधान सहायिका के रूप में गोशक्ति का सृजन किया है। इस यज्ञ की प्रक्रिया को सशक्त बनाने वाली रसदात्री गोमाता है। क्योंकि यज्ञ की सम्पूर्ण क्रियाओं में गाय द्वारा प्रदत्त दुग्ध, दही, घृत, पायस आदि द्रव्य अनिवार्य होते हैं। हविष्य को धारण करने की अग्निशक्ति का कारण भी गोघृत ही है। गौओं को साक्षात् यज्ञरूप बतलाया है। इनके बिना यज्ञ किसी भी तरह नहीं हो सकता। देवगण मन्त्रों के अधीन हैं, मन्त्र ब्राह्मणों के अधीन हैं और ब्राह्मणों को भी हव्य-कव्य, पंचगव्यादि गौ के द्वारा ही प्राप्त होती हैं। महर्षि पाराशर के अनुसार ब्रह्माजी ने एक ही कुल के दो भाग कर दिए–एक भाग गाय और एक भाग ब्राह्मण। ब्राह्मणों में मन्त्र प्रतिष्ठित हैं और गायों में हविष्य प्रतिष्ठित है। अत: गायों से ही सारे यज्ञों की प्रतिष्ठा है। स्कन्दपुराण में ब्रह्मा, विष्णु व महेश के द्वारा कामधेनु की स्तुति की गई है–
त्वं माता सर्वदेवानां त्वं च यज्ञस्य कारणम्।
त्वं तीर्थं सर्वतीर्थानां नमस्तेऽस्तु सदानघे।।
अर्थात् हे अनघे ! तुम समस्त देवों की जननी तथा यज्ञ की कारणरूपा हो और समस्त तीर्थों की महातीर्थ हो, तुमको सदैव नमस्कार है।
वेद हमारे ज्ञान के आदिस्त्रोत हैं। वे हमें देवताओं को प्रसन्न करने की विद्या–यज्ञानुष्ठान का पाठ पढ़ाते हैं। संसारचक्र का पालन करने वाले देवताओं की प्रसन्नता ही हमारी सुख-समृद्धि का साधन है। अत: यज्ञ हमारी लौकिक उन्नति और कल्याण दोनों के लिए आवश्यक हैं। यज्ञ से हम जो चाहें प्राप्त कर सकते हैं। इस यज्ञचक्र को चलाने के लिए ही वेद, अग्नि, गौ एवं ब्राह्मणों की सृष्टि हुई। वेदों में यज्ञानुष्ठान की विधि बताई गई है एवं ब्राह्मणों के द्वारा यह विधि सम्पन्न होती है। अग्नि के द्वारा आहुतियां देवताओं को पहुंचाई जाती हैं और गौ से हमें देवताओं को अर्पण करने योग्य हवि प्राप्त होता है। इसलिए हमारे शास्त्रों में गौ को ‘हविर्दुघा’ (हवि देने वाली) कहा गया है। गोघृत देवताओं का परम हवि है और यज्ञ के लिए भूमि को जोतकर तैयार करने एवं गेहूं, चावल, जौ, तिल आदि हविष्यान्न पैदा करने का काम बैलों (गाय के बछड़ों) द्वारा किया जाता है। यही नहीं, यज्ञभूमि को शुद्ध व परिष्कृत करने के लिए उस पर गोमूत्र छिड़का जाता है और गोबर से लीपा जाता है तथा गोबर के कंडों से ही यज्ञाग्नि प्रज्जवलित की जाती है। गोमय से लीपे जाने पर पृथ्वी पवित्र यज्ञभूमि बन जाती है और वहां से सारे भूत-प्रेत और अन्य तामसिक पदार्थ दूर हो जाते हैं। यज्ञानुष्ठान से पूर्व प्रत्येक यजमान की देहशुद्धि के लिए पंचगव्य पीना होता है जो गाय के ही दूध, दही, घी, गोमूत्र व गोमय (गोबर) से तैयार होता है। जो पाप किसी प्रायश्चित से दूर नहीं होते, वे गोमूत्र के साथ अन्य चार गव्य पदार्थ (दूध, दही, घी, गोमय) से युक्त होकर पंचगव्य रूप में हमारे अस्थि, मन, प्राण और आत्मा में स्थित पाप समूहों को नष्ट कर देते हैं।
‘पंचगव्यप्राशनं महापातकनाशनम्।’
देवताओं को आहुति पहुंचाने के लिए हमारे यहां दो ही मार्ग माने गये हैं–अग्नि और ब्राह्मणों का मुख। दूध में पकाये गये चावल जिन्हें आधुनिक भाषा में खीर कहते हैं और संस्कृत में परमान्न (सर्वश्रेष्ठ भोजन)–यही देवताओं और ब्राह्मणों को विशेष प्रिय होती है। घी को सर्वश्रेष्ठ रसायन माना गया है; गोमूत्र सब जलों में श्रेष्ठ है; गोरस सब रसों में श्रेष्ठ है।

गाय सच्ची श्रीस्वरूपा (श्रीमती)

ऊँ नमो गोभ्य: श्रीमतीभ्य: सौरभेयीभ्य एव च।
नमो ब्रह्मसुताभ्यश्वच पवित्राभ्यो नमो नम:।।
इस श्लोक में गाय को श्रीमती कहा गया है। लक्ष्मीजी को चंचला कहा जाता है, वह लाख प्रयत्न करने पर भी स्थिर नहीं रहतीं। किन्तु गौओं में और यहां तक कि गोमय में इष्ट-तुष्टमयी लक्ष्मीजी का शाश्वत निवास है इसलिए गौ को सच्ची श्रीमती कहा गया है। सच्ची श्रीमती का अर्थ है कि गोसेवा से जो श्री प्राप्त होती है उसमें सद्-बुद्धि, सरस्वती, समस्त मंगल, सभी सद्-गुण, सभी ऐश्वर्य, परस्पर सौहार्द्र, सौजन्य, कीर्ति, लज्जा और शान्ति–इन सबका समावेश रहता है। शास्त्रों में वर्णित है कि स्वप्न में काली, उजली या किसी भी वर्ण की गाय का दर्शन हो जाए तो मनुष्य के समस्त कष्ट नष्ट हो जाते हैं फिर प्रत्यक्ष गोभक्ति के चमत्कार का क्या कहना?
यहां तक कि साक्षात् ब्रह्म भी गोलोक का परित्याग कर भारतभूमि पर गोकुल (गोधन) का बाहुल्य देखकर अत्यन्त लावण्यमय रूप धरकर उनकी सेवा के लिए अवतरित हुए। श्रीमद्भागवत में श्रीशुकदेवजी कहते है कि भगवान गोविन्द स्वयं अपनी समृद्धि, रूपलावण्य एवं ज्ञान-वैभव को देखकर चकित हो जाते थे (३।२।१२)। श्रीकृष्ण को भी आश्चर्य होता था कि सभी प्रकार के ऐश्वर्य, ज्ञान, बल, ऋषि-मुनि, भक्त, राजागण व देवी-देवताओं का सर्वस्व समर्पण–ये सब मेरे पास एक ही साथ कैसे आ गए। वास्तव में यह सब उनकी गोसेवा का ही फल था। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने लोक को ही गोलोक नाम दिया। जब श्रीकृष्ण का जन्म हुआ तो नन्दबाबा ने कई लाख गौएं दान में दीं। नन्दबाबा को उनकी यह ‘नन्द’ की पदवी तथा श्रीराधा के पिता को ‘वृषभानुजी’ की पदवी गौओं की संख्या के ही कारण है। गर्गसंहिता के गोलोक-खण्ड में बताया गया है कि जो ग्वालों के साथ नौ लाख गायों का पालन करे, उसे ‘नन्द’ कहते हैं और पांच लाख गायों के पालक को ’उपनन्द’ कहते हैं। ‘वृषभानु’ उसे कहते हैं जो दस लाख गायों का पालन करता है।
गायें जहां स्वयं तपोमय हैं वहां अपनी सेवा करने वाले को भी तपोमय बना देती हैं। यज्ञ और दान का तो मुख्य स्तम्भ ही है गाय। अत: हमारी यही कामना है–
गावो ममाग्रतो नित्यं गाव: पृष्ठत एव च।
गावो मे सर्वतश्चैव गवां मध्ये वसाम्यहम्।।
‘गौएं मेरे आगे रहें। गौएं मेरे पीछे रहें। गौएं मेरे चारों ओर रहें और मैं गौओं के बीच में रहूं।’
गौ के सम्बन्ध में शतपथ ब्राह्मण (७।५।२।३४) में कहा गया है–’गौ वह झरना है, जो अनन्त, असीम है, जो सैंकड़ों धाराओं वाला है।’ पृथ्वी पर बहने वाले झरने एक समय आता है जब वे सूख जाते हैं। इन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर भी नहीं ले जा सकते हैं किन्तु गाय रूपी झरना इतना विलक्षण है कि इसकी धारा कभी सूखती नहीं। अपनी संतति (संतानों) के द्वारा सदा बनी रहती है। साथ ही इस झरने को एक-स्थान से दूसरे स्थान पर ले भी जा सकते हैं। 

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